अगर आप कुंवर नारायण की कविताओ के शोकिन है तो मै आपको यह बताना सही समझता हूँ की कुंवर नारायण की सभी बेहतरीन कविताओ को पढ़ने के लिए यह सबसे बेहतरीन स्थान है ।
तो चलिए बिना किसी तरह की देर किए Kunwar Narayan Poems की शुरूवात करते है ।
अन्तिम ऊँचाई
कितना स्पष्ट होता
आगे बढ़ते जाने का मतलब
अगर दसों दिशाएँ
हमारे सामने होती,
हमारे चारों ओर
नहीं।
कितना आसान होता
चलते चले जाना
यदि केवल हम चलते
होते
बाकी सब रुका होता।
मैंने अक्सर इस
ऊलजलूल दुनिया को
दस सिरों से सोचने
और बीस हाथों से पाने की कोशिश में
अपने लिए बेहद
मुश्किल बना लिया है।
शुरू-शुरू में सब
यही चाहते हैं
कि सब कुछ शुरू से
शुरू हो,
लेकिन अन्त तक
पहुँचते-पहुँचते हिम्मत हार जाते हैं।
हमें कोई दिलचस्पी
नहीं रहती
कि वह सब कैसे
समाप्त होता है
जो इतनी धूमधाम से
शुरू हुआ था
हमारे चाहने पर।
दुर्गम वनों और ऊँचे
पर्वतों को जीतते हुए
जब तुम अन्तिम ऊँचाई
को भी जीत लोगे-
जब तुम्हें लगेगा कि
कोई अन्तर नहीं बचा अब
तुममें और उन
पत्थरों की कठोरता में
जिन्हें तुमने जीता
है-
जब तुम अपने मस्तक
पर बर्फ़ का पहला तूफ़ान झेलोगे
और काँपोगे नहीं-
तब तुम पाओगे कि कोई
फ़र्क
नहीं सब कुछ जीत
लेने में
और अन्त तक हिम्मत न
हारने में।
समुद्र की मछली
बस वहीं से लौट आया
हूँ हमेशा
अपने को अधूरा
छोड़कर
जहाँ झूठ है,
अन्याय है, कायरता है, मूर्खता है-
प्रत्येक वाक्य को
बीच में ही तोड़-मरोड़कर,
प्रत्येक शब्द को अकेला
छोड़कर,
वापस अपनी ही
बेमुरौव्वत पीड़ा के
एकांगी अनुशासन में
किसी तरह पुनः आरम्भ
होने के लिए।
अखबारी अक्षरों के
बीच छपे
अनेक चेहरों में से
एक फक् चेहरा
अपराधी की तरह पकड़ा
जाता रहा बार-बार
अद्भुत कुछ जीने की
चोर-कोशिश में :
लेकिन हर सज़ा के बाद
वह कुछ और पोढ़ा होता गया,
वहीं से उगता रहा
जहाँ से तोड़ा गया,
उसी बेरहम दुनिया की
गड़बड़ रौनक़ में
गुंजाइश ढूँढ़ता रहा
बेहयाई से जीने की। किसी तरह
बची उम्र खींचकर
दोहरा ले
एक से दो और दो से
कई गुना,
या फिर
घेरकर अपने को किसी
नये विस्तार से
इतना छोटा कर ले
जैसे मछली
और इस तरह शुरू हो
फिर कोई दूसरा समुद्र…
आपद्धर्म
कभी तुमने कविता की
ऊँचाई से
देखा है शहर ?
अच्छे-भले रंगों के
नुक़सान के वक़्त
जब सूरज उगल देता
है रक्त।
बिजली के सहारे रात
स्पन्दित एक घाव
स्याह बक्तर पर।
जब भागने लगता है
पूँछदार सपना
ऑंखों से निकलकर
शानदार मोटरों के
पीछे। वह आती है
घर की दूरी से होटल
की निकटता तक
लेकिन मुझे तैयार
पाकर लौट जाती है
मेरा ध्यान भटकाकर
उस अँधेरे की और
जो रोशनी के
आविष्कार से पहले था।
उसकी देह के लचकते मोड़,
बेहाल सड़कों से
होकर अभी गुज़रे हैं
कुछ गये-गुज़रे
देहाती ख़्याल, जैसे
पनघट,
गोरी, बिंदिया वग़ैरह
और इसी एहसास को
मैंने
अक्सर इस्तेमाल से
बचाकर
रहने दिया कविता की
ऊँचाई पर,
और बदले में मोम की
किसी
सजी-बनी गुड़िया को
बाँहों में पिघलने
दिया।
जलते-बुझते
निऑन-पोस्टरों की तरह
यह सधी-समझी
प्रसन्नता।
सोचता हूँ
इस शहर और मेरे बीच
किसकी ज़रूरत बेशर्म
है ?
एक ओर हर सुख की
व्यवस्था,
दूसरी ओर प्यार आपद्धर्म
है।
जब आदमी आदमी नहीं रह पाता
दरअसल मैं वह आदमी
नहीं हूँ जिसे आपने
ज़मीन पर छटपटाते हुए
देखा था।
आपने मुझे भागते हुए
देखा होगा
दर्द से हमदर्द की
ओर।
वक़्त बुरा हो तो
आदमी आदमी नहीं रह पाता। वह भी
मेरी ही और आपकी तरह
आदमी रहा होगा। लेकिन
आपको यक़ीन दिलाता
हूँ
वह मेरा कोई नहीं था,
जिसे आपने भी
अँधेरे में मदद के
लिए चिल्ला-चिल्लाकर
दम तोड़ते सुना था।
शायद उसी मुश्किल
वक़्त में
जब मैं एक डरे हुए
जानवर की तरह
उसे अकेला छोड़कर बच
निकला था ख़तरे से सुरक्षा की ओर,
वह एक फँसे हुए
जानवर की तरह
ख़ूँख़्वार हो गया था।
यदि आपको कुंवर
नारायण (Kunwar Narayan ki kavita) की कविताएं पसंद
आई है, तो कमेंट करके हमें जरूर बताएं और इस पोस्ट को ज्यादा
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Good
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